बरसों की छिपी ख्वाइशें मानो,
एक साथ निकलती हैं
स्वयं की मुस्कुराहटों में, न जाने
कितनी आँखें विकलती हैं
एक ग़ुरूर, एक नशा घिरता है चारों ओर
फिर कुर्सियाँ कहाँ सँभलती हैं
- खुद ऊँचे, बाक़ी नीचे
अचानक नज़र आने लगते हैं
अपना रुतबा, अपना ज़ोर
आज़माने लगते हैं
दूसरों का हक़ लेने को-
उँगलियाँ मचलती हैं
फिर कुर्सियाँ कहाँ सँभलती हैं
कोई अपना हक़ माँग ले तो
नज़रों में हीनता दिखाई जाती है
मानव की नज़रों में मानवता
गिराई जाती है
छल-कपटता आँखों में चमकती है
फिर कुर्सियाँ कहाँ सँभलती हैं
@gunjanrajput
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